मैं आत्मलीन हूँ रहूँगा आत्मलीन बन नही सकता आवाज़ मैं किराये की नहीं हूँ भोपू, प्रतिध्वनि किसी विज्ञापन की इश्तहार की कोर पर छपी हुई तसवीर नहीं हूँ मैं नहीं हूँ वह डुप्लीकेटर जो छाती पर वज्र रख अनुकृति की मशीन सा रेता जाये
आत्मा का मोती मैं लूँगा वही जो स्वाती है, ग्राह्य है, प्रकृति है और इन सब से ज्यादा जो मेरा है, अपना है, निज का है। छाती पर अपने ट्यूमर-सा टापू उगा कर करूँगा बीठाऊँगा मैं उस में प्रतिमा तुम्हारी नहीं इसीलिए कहता हूँ आत्मलीन हूँ रहूँगा मैं आत्मलीन ही।
आत्मा मेरी तुम्हारी नहीं है एक होने पर, सर्वोपरि होने पर गुणधर्मा है वह वह पकतो नहीं बावर्चीखाने में पकाता है उसे अनुताप मन का आत्मलीन क्षण का तूफानी आत्मबोध जनक है मेरी रचना का और यह रचना आटे की लेई-सी पिलपिली नहीं है जिसे तुम काठ के बोतल पर रख आकृति दो यह है सम्भावना उस मृत्तिका पिण्ड की जो किसी की पार्थिव आत्मा बन अंकुरित कर जाती है श्रद्धा के क्षण दो किरण-कण।
सच मानो कथ्य तथाकथित जनश्रुतियों के आत्महीन नहीं हूँ मैं आत्मलीन हूँ रहूँगा आत्मलीन ही मैं।
कुत्ते की परछाई-सी जो ध्वनिया मेरे आसपास मुझ से टकराती हैं मैं उन ध्वनियों से बडा हूँ क्योकि मैं सुन लेता हूँ अपनी आत्मलीन स्थिति में करुणा, वेदना, पीड़ा उन सब की जो मेरे साथ-साथ मौन हो, मुझ-से ही मूक हो सकते हैं मेरा अहंकार अपनी परिधि का स्वामी है स्वधर्म की सीमा में सहधर्मी है दम्भी नहीं है वह इसलिए वह ईश्वर भी नहीं है केवल मेरा है मेरी आत्मलीन स्थिति का है।
-लक्ष्मीकांत वर्मा |