मैं दुनिया की सब भाषाओं की इज्जत करता हूँ, परन्तु मेरे देश में हिंदी की इज्जत न हो, यह मैं नहीं सह सकता। - विनोबा भावे।
मँजी (काव्य)  Click to print this content  
Author:मधु खन्ना

आज बरसो बाद मुझ को लगा
मैं अपनी दादी के संग सोई
चाँद सितारों के नीचे खोई।

मंजी की रस्सी में
पाया दादी का प्यार
अनंत असीम शांति व दुलार।

दुपट्टे में छिपाया
अपने संग सुलाया।
आज बरसो बाद मुझ को लगा
इस रस्सी के बीने धागे
बचपन याद दिलाते हैं।

दादी सी झिड़की कोई दे दे
पड़ी अकेले पलसेटे लेती
मटर निकाले, मैथी तोड़ी
मंजी पर झसवाया सर
उस ने तेल लगाया सर
दूध मलाई हमें खिलाई
बुआ अपनी साथ बिठाई।

कहाँ गई वो बातें
कहाँ गई दराती
कहाँ गया वो साग
कहाँ गया वो मीठा राग
भांडे कली कराने
कहाँ गये वो वेड़े
कहाँ गया वो ब्राह्मणी का आना
आटे की रोटी को गाय को खिलाना
मेरे बचपन का तूँ तूँ वाला
मिट्टी के खिलौने
रेड़ी वाले का आना
तंदूर से जा भाग फुल्के लगवाना।

मंजी क्या आई , बचपन की याद दिलाई
मंजी के धागे, बचपन ले भागे।।

-मधु खन्ना, ऑस्ट्रेलिया
ई-मेल: Khannamadhu45@yahoo.com.au

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