पैसे के पीछे - मनुष्य भाग रहा ऐसे, पकड़म-पकड़ाई का खेल – खेल रहा हो जैसे।
पुकार रहा – उसे, आ-आ छू ले मुझे। सुन उसकी ललकार- मानव है, पाने को उसे बेकरार।
करता जबकि यही- भेदभाव, सम्बन्धों का बन रहा- आज यही आधार।
अपने लगने लगे- सब इसके, समक्ष अब पराए।
संसार से आगे- साथ न यह, दे पाए।
माना पैसा ज़रूरी है- जीने के लिए, पर सब कुछ नहीं है- यह हमारे लिए।
-डॉ. परमजीत ओबराय |