मैं दुनिया की सब भाषाओं की इज्जत करता हूँ, परन्तु मेरे देश में हिंदी की इज्जत न हो, यह मैं नहीं सह सकता। - विनोबा भावे।
यूँ कहने को बहकता जा रहा हूँ (काव्य)  Click to print this content  
Author:नरेश शांडिल्य

यूँ कहने को बहकता जा रहा हूँ
मगर सच में सँभलता जा रहा हूँ

उलझता जा रहा हूँ तुझमें जितना
मैं उतना ही सुलझता जा रहा हूँ

भले बाहर से दिखता हूँ मचलता
मगर भीतर ठहरता जा रहा हूँ

ज़मीं से पाँव भी उखड़े नहीं हैं
फ़लक तक भी मैं उठता जा रहा हूँ

नदी इक मुझमें मिलती जा रही है
मैं सागर-सा लहरता जा रहा हूँ

-नरेश शांडिल्य

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