ज़िन्दगी को औरों की ख़ातिर बना दिया घर की ज़रूरतों ने मुसाफ़िर बना दिया
वो आंधियों से डरकर बैठा नहीं खामोश परिंदे ने अपना घौंसला फिर बना दिया
मासूम बहुत था, जब आया था शहर में मुझे पेशे ने आजकल शातिर बना दिया
हासिल किया था इल्म तो शौक़ में मगर भूख-प्यास ने मुझको ताज़िर बना दिया
ऐ तक़दीर ना डरा, बुढ़ापे की ठोकरों से मुझे राहों के पत्थरों ने माहिर बना दिया
हिंदी ने प्यारी उर्दू को अपना लिया मगर जहां सर बनाना था वहां सिर बना दिया
सियासत के फैसलों ने तक़दीर बदल दी जो मूल निवासी था मुहाजिर बना दिया
इतनी कहां थी फुर्सत कि हाले दिल कहूं आंसूओ ने मेरा ज़ख्म जाहिर बना दिया
ग़ालिब नहीं तो दिल्ली, ज़फ़र तो बना दे लुधियाने ने एक शख़्स साहिर बना दिया
ज़फ़रुद्दीन ज़फ़र एफ-413, कड़कड़डूमा कोर्ट, दिल्ली -32 ई-मेल : zzafar08@gmail.com |