हिसाबे-इश्क़ है साहिब ज़रा भी कम न निकलेगा, कि कुछ आँसू बहाने से, ये दर्दो-ग़म न निकलेगा !
इन आँखों मे समन्दर है मिरि दर्द-ए-मुहब्बत का, मग़र इनसे कोई मोती, कोई नीलम न निकलेगा !
अगर तुमने यह माना है, मैं छलिया हूँ, फ़रेबी हूँ, मैं चाहे जो सफाई दूँ, तुम्हारा वहम न निकलेगा !
हमेशा चाँदनी हो रात, भला कैसे यह मुमकिन है? अगर हैं बन्दिशें, तो चाँद भी, पैहम न निकलेगा !
तिरे दीदार को अटकी हैं सांसे जिस्म में शायद, तुम्हे देखे बिना दिलबर हमारा दम न निकलेगा !
फ़रिश्तों तुम मिरि रूह की, अच्छे से तलाशी लो, तुम्हे मुझपे कोई धेला, कोई दिरहम न निकलेगा !
वहम तूने भी तो ‘अरविन्द’ ज़हन में पाल रक्खा है, कि तेरी शोख़ गज़लों का कभी मौसम न निकलेगा !!
-अरविन्द कुमार ‘सिंहानिया’ ई-मेल : arvindkumarsinghania@gmail.com
शब्दार्थ :
हिसाबे-इश्क़ = इश्क़ का हिसाब,
दर्द-ए-मुहब्बत = मुहब्बत का दर्द
नीलम = एक क़ीमती रत्न
पैहम = लगातार/निरन्तर
रूह = आत्मा
दिरहम = एक करेंसी (रुपया-पैसा) |