मैं दुनिया की सब भाषाओं की इज्जत करता हूँ, परन्तु मेरे देश में हिंदी की इज्जत न हो, यह मैं नहीं सह सकता। - विनोबा भावे।
हिसाबे-इश्क़ है साहिब | ग़ज़ल (काव्य)  Click to print this content  
Author:अरविन्द कुमार सिंहानिया

हिसाबे-इश्क़ है साहिब ज़रा भी कम न निकलेगा,
कि कुछ आँसू बहाने से, ये दर्दो-ग़म न निकलेगा !

इन आँखों मे समन्दर है मिरि दर्द-ए-मुहब्बत का,
मग़र इनसे कोई मोती, कोई नीलम न निकलेगा !

अगर तुमने यह माना है, मैं छलिया हूँ, फ़रेबी हूँ,
मैं चाहे जो सफाई दूँ, तुम्हारा वहम न निकलेगा !

हमेशा चाँदनी हो रात, भला कैसे यह मुमकिन है?
अगर हैं बन्दिशें, तो चाँद भी, पैहम न निकलेगा !

तिरे दीदार को अटकी हैं सांसे जिस्म में शायद,
तुम्हे देखे बिना दिलबर हमारा दम न निकलेगा !

फ़रिश्तों तुम मिरि रूह की, अच्छे से तलाशी लो,
तुम्हे मुझपे कोई धेला, कोई दिरहम न निकलेगा !

वहम तूने भी तो ‘अरविन्द’ ज़हन में पाल रक्खा है,
कि तेरी शोख़ गज़लों का कभी मौसम न निकलेगा !!

-अरविन्द कुमार ‘सिंहानिया’
 ई-मेल : arvindkumarsinghania@gmail.com


शब्दार्थ :

हिसाबे-इश्क़ = इश्क़ का हिसाब,

दर्द-ए-मुहब्बत = मुहब्बत का दर्द

नीलम = एक क़ीमती रत्न

पैहम = लगातार/निरन्तर

रूह = आत्मा

दिरहम = एक करेंसी (रुपया-पैसा)

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