नारी तुम बाध्य नहीं हो, हाँ, नहीं हो तुम बाध्य-- जीवनभर ढोने को मलबा सड़ी-गली,थोथी, अर्थहीन परम्पराओं का।
नहीं देनी है तुम्हें कोई जवाबदेही पूर्वाग्रही, क्षुद्र मानसिकता-ग्रस्त समाज के निर्लज्ज आक्षेपों की।
नहीं जन्मी हो तुम-- इन आक्षेपों से आहत हो सहने को उत्पीड़न।
समाज मागंता है जो सीता की अग्नि-परीक्षा, और-- प्रमाण-पत्र सीता के सतीत्व का। समाज डाल देता है जो गर्भवती देवकी को कारावास में-- निरंतर सहने को घोर यंत्रनाएं।
देता है जो साथ द्रौपदी के चीर-हरण में निरंकुश सत्ताधीशों का-- अपनी कुत्सित चाटुकारिता से। नहीं पिघलता उस स्वार्थान्ध, मूक-बधिर का पाषाण-हृदय सीता, देवकी और द्रौपदी के-- करूण-क्रंदन और अविरल अश्रुधारा से।
बल्कि पाता है आत्म-तुष्टि-- उसका अभ्यस्त मन तृप्त कर अपनी चिर-संचित कुंठाओं को।
हे कल्याणि! उठो, पोंछ लो अपने आँसू हे आद्याशक्ति! पहचानो अपने आत्मबल को। हे गरिमामयी! तुम स्वतंत्र हो हाँ, तुम स्वतंत्र हो याचक नहीं अधिकारिणी हो स्वनिर्णयों की निर्वहन करने अपने दायित्वों की।
हे पयस्विनी नहीं खोना है धैर्य तुम्हें सीता ने भी पाला था लव-कुश को वन में देवकी ने भी जन्म दिया था कन्हैया को कारावास में और द्रौपदी की भी आर्त-पुकार खींच लाई थी श्रीकृष्ण को-- आततायियों की सभा में।
-अमिता शर्मा, भारत |