क्या संसार में कहीं का भी आप एक दृष्टांत उद्धृत कर सकते हैं जहाँ बालकों की शिक्षा विदेशी भाषाओं द्वारा होती हो। - डॉ. श्यामसुंदर दास।
व्यथा एक जेब कतरे की (काव्य)  Click to print this content  
Author:डॉ रामकुमार माथुर

कोरोना से प्यारे अपना क्या हाल हो गया
जेबें ढीली पड़ गईं
और
पेट से पीठ का मिलन हो गया।
पॉकेटमार नाम है अपना
और
राम नाम जपना पराया माल हो अपना।
अच्छा धंधा था
यह अपना
लोगों की भारी भारी जेबों को
'हाथ की सफाई' से हल्की करना
फिर चैन से खाना-पीना और सोना।
अब कोरोनाकाल में
वही हाथ धो धो क
ये 'कलाकार' निढाल हो गया।
कोरोना से प्यारे अपना....

जब नगर में दिन प्रतिदिन
लगते थे कई कई ठेले मेले
खुशी-खुशी उनमें हमने
कई कई बार हैं धक्के झेले
लोगों की जेबों पर अपनी
उंगलियों की कृपा बरसाई
इन हाथों, न जाने कितने
बटुओं और नोटों की
जान है बचाई।
एक अरसा हो चुका है यहांँ
हरियाली देखे हुए
हरा-भरा मैदान अब रेगिस्तान हो गया
कोरोना से प्यारे.....

हाथों की कसरत नहीं हुई है
कलाइयांँ व उंगलियाँ अकड़ गईं हैं
लोगों की रेलमपेल देखने को
अखियाँ तरस गई हैं
फाका द्वार पीट रहा है
धंधा खटिया पकड़े हुए हैं
अच्छा खासा सुखी जीवन
बदहाल हो गया ।
कोरोना से प्यारे......

सूने हैं मस्जिद, मन्दिर
और गिरजाघर, गुरुद्वारे
भटक रहे हैं ब्लेड सहित
गली-मोहल्ले द्वारे द्वारे
खाली हाथ लौट-लौटकर
हम मरीज और कमरा अपना
आज अस्पताल हो गया।
कोरोना से प्यारे....

किसको सुनाएँ दुखड़ा अपना
किसे पढाएंँ यह अफसाना
हम मेहनतकश बंदों की
इतनी अच्छी कला का
बंटाढार हो गया।
कोरोना से प्यारे अपना
क्या हाल हो गया।

-डॉ रामकुमार माथुर
 अजमेर, राजस्थान

 

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