नहीं क्या इसका तुमको ज्ञान, कि है पथ यह कितना अनजान? चले इस पर कितने ही धीर, हुए चलते-चलते हैरान। न पाया फिर भी इसका छोर। चले हो अरे, आज किस ओर? चले इस पर कितने ही संत, किसी को मिला ना इसका अंत। अलापा नेति-नेति का राग, न पाया फिर भी इसका छोर। चले हो अरे, आज किस ओर? अरे, है अगम सत्य की शोध, बुद्ध औ' राम कृष्ण से देव, चले इस पद पर जीवन हार, न पाया फिर भी इसका पार। बटोही, साहस को झकझोर - बढ़े जाते फिर भी उस ओर!
-भगवद्दत्त ‘शिशु' [निर्झरिणी, नवयुग साहित्य सदन, इन्दौर, 1946] |