भाषा का निर्माण सेक्रेटरियट में नहीं होता, भाषा गढ़ी जाती है जनता की जिह्वा पर। - रामवृक्ष बेनीपुरी।
पीपल की छांव में  (काव्य)  Click to print this content  
Author:उत्तरा गुरदयाल

पीपल की छांव में
अपने गाँव में
बचपन में झूला करती
थी झूला।

हरियाली के मौसम में
चूड़ियों की खनक
पायल की झनक
राग में मिलाती राग
गुनगुनाती
कभी मुस्कुराती।

कभी खिलखिला कर
हँसती,
पतझड़ आता
पत्ते झड़ते
ढेर लग जाते,
कुछ से झूला सजाती
कुछ से पहाड़ बनाती,
आया समझ में पीपल
का महत्व।
नित्य शाम दिया
जलाती
परिक्रमा करती
मन में सपने सजाती।

मन-चाह पाती
सुन्दर घर-परिवार
पांव रखूं कभी
धरती पर,
कभी आंसमा।

पीपल की छांव
जैसे हो
अपना खुशनुमा-संसार,
पीपल जैसा पवित्र हो
अपना प्यार।

जीवन का झूला झूलें
हँसते- मुस्कुराते,
जैसे बचपन वाले
पीपल की छांव में।
कभी गाँव लौटूं तो
माथा टेकूं
अपने बचपन वाले
पीपल का,
लूं, आशीर्वाद
हर सावन में
गाँव लौटूं।
झूला झूलू हर बार
अपने बचपन वाली
पीपल की छांव में।

-उत्तरा गुरदयाल
 फीजी

* उत्तरा गुरदयाल फीजी से हैं। आप सेवामुक्त शिक्षिका हैं।  

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