चलो ये शहर तुम्हारे नाम करता हूँ, यहां के लोग मेरे हुए, सारे पेड़ तुम्हारे, पंछी सारे मेरे हुए, तुमको तुम्हारा शहर मुबारक, मैं अपनों के संग लौट रहा हूँ गांव अब तुम अकेले हो, ऐश्वर्य से भरपूर अपने शहर में, लकदक रौशनी जगमग हैं चारों ओर और सड़कें खामोश हैं, पेड़ मौन, तीन दिन हो गए दुलारे के चूल्हे से धुआं निकले, वहां बस राख है, चाय के लिए शोर मचाने वाले सब गांव में हैं, मंदिर की घंटियां, मस्जिद का लाउडस्पीकर बेजान सा है चुप्प गांव के मंदिर में अष्टजाम हो रहा है उधर मस्जिद में अजान, शहर की पूरी आत्मा गांव में धड़क रही है, इधर शहर में ऐशो-आराम के बीच तुम अकेले हो बेचैन से, हवा गुजर रही है सांय-सांय, चांदनी तो है पर पड़ोस की चंदा नहीं जो लोरी गाकर सुनाती थी अपने मोहन को, रहमान भी नहीं, जो पीछे से टोक देता था तुम्हे, पूछता था और कैसे हो भाई, तुम बदहवास से हो, निढाल पड़े हुए, तुम्हारी रोशनी का दरवाजा अंधेरे की ओर खुल रहा है, तुम जागते हो और भागते हो गांव की ओर, लिपट जाते हो दुलारे से और रहमान से, चंदा से कहते हो लौट आओ, तुम्हारी आंखें खुलीं हैं, तुम समझ गए हो आदमी का महत्व।
-अमलेन्दु अस्थाना चीफ सब एडिटर, दैनिक भास्कर, पटना ई-मेल: amlenduasthana@gmail.com |