प्रकृति-सुंदरी का अंत:पुर फीजी नंदन-वन लगता है।
सागर की उत्ताल तरंगें याद दिलाती हर-हर गंगे देख देख साँवरी घटाएँ हर मौसम सावन लगता है फीजी नंदन-वन लगता है ॥१॥
पुष्पित औ' पल्लवित लताएँ झूम झूमकर नाचें, गाएँ घाटी के आँचल में फैला उपवन वृन्दावन लगता है फीजी नंदन-वन लगता है ॥२॥
रेवा - बा की जल धाराएँ गंगा-जमुना सी लहराएँ तन-मन की यह प्यास बुझाएँ इनका तट पावन लगता है फीजी नंदन-वन लगता है ॥३॥
फीजी के प्रसन्न नर नारी बुला मुस्कुराहट है प्यारी इनकी ख़ुशी की खुशबू से यह सुरभित चंदनवन लगता है। फीजी नंदन-वन लगता है ॥४॥
चलती-फिरती दीप-शिखाएँ फीजी की सुन्दर बालाएँ इनके पद-संचालन से ही सूवा-पार्क मधुवन लगता है फीजी नंदन-वन लगता है ॥५॥ स्वस्थ, गठीले तरुण सजीले खिले पुष्प से पीले-नीले भागें, दौड़ें रग्बी खेलें यौवन का मेला लगता है फीजी नंदन-वन लगता है ॥६॥
मंदिर, मस्जिद, गिरजा, गुरुद्वारे गूंज रहे सबके जयकारे होली, ईद, दिवाली, क्रिसमस हर दिन यहाँ पर्व लगता है फीजी नंदन-वन लगता है ॥७॥
नगर रम्य नांदी, लौटोका लंबासा माथे का टीका सूवा शहर अपने वैभव में हीरक कंठहार लगता है फीजी नंदन-वन लगता है ॥८॥
शिव शम्भू कैलाश विराजे नागराज धरती पर साजे अतल कुंड भूखंड तैरता यह रमणीक द्वीप लगता है फीजी नंदन-वन लगता है ॥९॥
-राजकुमार अवस्थी |