ओढ़कर सोज़-ए-घूंघट चले तुम कहाँ?
सोच लो तुम जरा-- होंगे हम भी वहाँ। एक साया भी होगा होंगे तुम जहाँ-जहाँ। ओढ़कर सोज़-ए-घूंघट चले तुम कहाँ?
वफ़ाओं और जफ़ाओं का रहा नाता उमर भर, रहे ढूंढते मरहम टूटे दिल की यहाँ-वहाँ। ओढ़कर सोज़-ए-घूंघट चले तुम कहाँ?
भँवरों और फूलों का खेल है यह इश्क। चलेंगे साथ-साथ जाओगे तुम जहाँ। ओढ़कर सोज़-ए-घूंघट चले तुम कहाँ?
कटी है तमाम उमर जुस्तजू-ए-मुहब्बत में, वस्ल-ए-यार ही न मिला भटके न जाने कहाँ-कहाँ। ओढकर सोज़-ए-घूंघट चले तुम कहाँ?
-नरेश कुमारी, न्यूज़ीलैंड |