जहाँ पेड़ पर चार दाने लगे हज़ारों तरफ से निशाने लगे
हुई शाम, यादों के इक गाँव से परिन्दे उदासी के आने लगे
घड़ी-दो घड़ी मुझको पलकों पे रख यहाँ आते-आते ज़माने लगे
कभी बस्तियाँ दिल की यूँ भी बसीं दुकानें खुली, कारख़ाने लगे
वहीं ज़र्द पत्तों का क़ालीन है गुलों के जहाँ शामियाने लगे
पढ़ाई-लिखाई का मौसम कहाँ किताबों में ख़त आने-जाने लगे
--बशीर बद्र
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