दलदल के भीतर अपने अंशों को पिरोए हुए, शायद वंशावली की धरोहर को संजोए हुए, एक कमल दल तैरता रहता, कभी इस छोर-कभी उस छोर। नहीं था ज्ञान अपने होने का उसको, समझ बैठा कीचड़ को घर ।
घिरकर दलदल में शायद, वह नहीं सकता था कुछ कर ।
फिर भी बचाने को गंदगी से, अपने वंश रत्न को, करता प्रयास नित सांझ सबेरे । कभी छुपा दलदल में, कभी झकझोरा निर्मम ठंडी पवन ने, कर प्रयास, बांधी सपनों की आस, होगा सबेरा खिलेगा नवप्रकाश ।
आया समय पुलकित हुई वैभवशाली कली, उठ खड़ा हुआ दलदल से विरत , बन उजला उज्जवल निर्मल कमल ।
- मयंक गुप्ता वंशी नगर शिकोहाबाद (उत्तर प्रदेश), भारत मोबाइल: 09359288275 ई-मेल: mayankpansy@gmail.com
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