हिंदी चिरकाल से ऐसी भाषा रही है जिसने मात्र विदेशी होने के कारण किसी शब्द का बहिष्कार नहीं किया। - राजेंद्रप्रसाद।
 
दुष्यंत और भारती के सवाल-जवाब (विविध)     
Author:भारत-दर्शन संकलन

एक बार दुष्यंत कुमार ने 'धर्मयुग' से लेखकों को मिलने वाले पारिश्रमिक को लेकर शिकायती लहजे में एक ग़ज़ल लिखकर संपादक को भेजी। उस समय ‘धर्मयुग’ के संपादक धर्मवीर भारती थे। उन्होंने भी अपनी मजबूरी को एक ग़ज़ल के रूप में व्यक्त करके दुष्यंत कुमार को भेज दिया। बाद में ये दोनों ग़ज़लें धर्मयुग में प्रकाशित भी हुई। यहाँ दुष्यंत कुमार और धर्मवीर भारती की दोनों ग़ज़लें प्रकाशित की जा रही हैं, आप भी आनंद उठाएँ।

दुष्यंत कुमार की शिकायत...

पत्थर नहीं हैं आप तो पसीजिए हुज़ूर
संपादकी का हक़ तो अदा कीजिए हुज़ूर

अब ज़िंदगी के साथ ज़माना बदल गया
पारिश्रमिक भी थोड़ा बदल दीजिए हुज़ूर

कल मयक़दे में चेक दिखाया था आपका
वे हँस के बोले इससे ज़हर पीजिए हुज़ूर

शायर को सौ रुपए तो मिलें जब ग़ज़ल छपे
हम ज़िन्दा रहें ऐसी जुगत कीजिए हुज़ूर

लो हक़ की बात की तो उखड़ने लगे हैं आप
शी! होंठ सिल के बैठ गए, लीजिए हुजूर

धर्मवीर भारती ने दुष्यंत कुमार की शिकायत के उत्तर के तौर पर यह ग़ज़ल लिख भेजी :

जब आपका ग़ज़ल में हमें ख़त मिला हुज़ूर
पढ़ते ही यक-ब-यक ये कलेजा हिला हुज़ूर

ये ‘धर्मयुग’ हमारा नहीं सबका पत्र है
हम घर के आदमी हैं हमीं से गिला हुज़ूर

भोपाल इतना महंगा शहर तो नहीं कोई
महंगाई का बांधते हैं हवा में किला हुज़ूर

पारिश्रमिक का क्या है बढ़ा देंगे एक दिन
पर तर्क आपका है बहुत पिलपिला हुज़ूर

शायर को भूख ने ही किया है यहाँ अज़ीम
हम तो जमा रहे थे यही सिलसिला हुज़ूर

[भारत-दर्शन संकलन]

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