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 कबीर की ज्ञान, भक्ति और नीति पर साखियाँ | Kabir Sakhiyan
भारत की सारी प्रांतीय भाषाओं का दर्जा समान है। - रविशंकर शुक्ल।

कबीर की ज्ञान, भक्ति और नीति साखियाँ

 (काव्य) 
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रचनाकार:

 कबीरदास | Kabirdas

यहाँ कबीर की ज्ञान, भक्ति और नीति के विषयों से सम्बद्ध साखियाँ संकलित हैं। इनमें आत्मा की अमरता, संसार की असारता, गुरु की महिमा तथा दया, सन्तोष और विनम्रता जैसे सद्गुणों पर बल दिया गया है।

साईं ते सब होत है बन्दे ते कछु नाहिं।
राई ते परबत करै, परबत राई माँहि ॥ १॥

ज्यों तिल माँहीं तेल है, जो चकमक में आगि।
तेरा साई तुज्झ में, जाग सकै तो जागि ॥२॥

कस्तूरी कुण्डलि बसै, मृग ढूंढे बन माँहिं
ऐसे घट घट राम हैं, दुनिया देखै नाहिं ॥३॥


निन्दक नियरे राखिये, अाँगन कुटी छवाय ।
बिन पानी साबन बिना, निर्मल करे सुभाय ॥४॥

उत तें कोऊ न आवई, जासों पूछूं धाइ ।
इततें सब हो जात हैं, भार लदाई लदाइ ॥५॥

जिनि ढूंढ़ा तिनि पाइयाँ, गहरे पानी पैठि ।
हौं बौरी डूबन डरी, रही किनारे बैठि ॥६॥

जहाँ दया तहें धर्म है, जहाँ लोभ तहँ पाप ।
जहाँ क्रोध तहें काल है, जहाँ छिमा तहँ आप ॥७॥


पोथी पढ़-पढ़ जग मुवा, पंडित हुवा न कोइ ।
ढाई अच्छर प्रेम का, पढ़ै तो पंडित होइ ॥८॥


जा घट प्रेम न संचरे, सो घट जान मसान ।
जैसे खान लोहार की, सांस लेतु बिनु प्रान ॥९॥


सिख तो ऐसा चाहिए, गुरु को सब कछु देय।
गुरु तो ऐसा चाहिए, सिख से कछु नहिं लेय ॥१०॥

- कबीर

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