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 पन्‍द्रह अगस्‍त | A poem by Girijakumar Mathur
हिंदी जाननेवाला व्यक्ति देश के किसी कोने में जाकर अपना काम चला लेता है। - देवव्रत शास्त्री।

पन्‍द्रह अगस्‍त

 (काव्य) 
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रचनाकार:

 गिरिजाकुमार माथुर | Girija Kumar Mathur

आज जीत की रात
पहरुए, सावधान रहना!
खुले देश के द्वार
अचल दीपक समान रहना।

प्रथम चरण है नए स्‍वर्ग का
है मंज़िल का छोर
इस जन-मन्‍थन से उठ आई
पहली रत्‍न हिलोर
अभी शेष है पूरी होना
जीवन मुक्‍ता डोर
क्‍योंकि नहीं मिट पाई दुख की
विगत साँवली कोर

ले युग की पतवार
बने अम्‍बुधि महान रहना
पहरुए, सावधान रहना!

विषम श्रृंखलाएँ टूटी हैं
खुली समस्‍त दिशाएँ
आज प्रभंजन बन कर चलतीं
युग बन्दिनी हवाएँ
प्रश्‍नचिह्न बन खड़ी हो गईं
यह सिमटी सीमाएँ
आज पुराने सिंहासन की
टूट रही प्रतिमाएँ

उठता है तूफान इन्‍दु तुम
दीप्तिमान रहना
पहरुए, सावधान रहना

ऊँची हुई मशाल हमारी
आगे कठिन डगर है
शत्रु हट गया, लेकिन
उसकी छायाओं का डर है
शोषण से मृत है समाज
कमजोर हमारा घर है
किन्‍तु आ रही नई जि़न्‍दगी
यह विश्‍वास अमर है

जन गंगा में ज्‍वार
लहर तुम प्रवहमान रहना
पहरुए, सावधान रहना!

- गिरिजा कुमार माथुर

 

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