गीतों से भरे दिन फागुन के ये गाए जाने को जी करता! ये बाँधे नहीं बँधते, बाँहें-- रह जातीं खुली की खुली, ये तोले नहीं तुलते, इस पर ये आँखें तुली की तुली, ये कोयल के बोल उड़ा करते, इन्हें थामे हिया रहता!
अनगाए भी ये इतने मीठे इन्हें गाएँ तो क्या गाएँ, ये आते, ठहरते, चले जाते इन्हें पाएँ तो क्या पाएँ ये टेसू में आग लगा जाते, इन्हें छूने में डर लगता!
ये तन से परे ही परे रहते, ये मन में नहीं अंटते, मन इनसे अलग जब हो जाता, ये काटे नहीं कटते, ये आँखों के पाहुन बड़े छलिया, इन्हें देखे न मन भरता !
- केदारनाथ सिंह |