यदि स्वदेशाभिमान सीखना है तो मछली से जो स्वदेश (पानी) के लिये तड़प तड़प कर जान दे देती है। - सुभाषचंद्र बसु।

जिस तिनके को ...

 (काव्य) 
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रचनाकार:

 ज्ञानप्रकाश विवेक | Gyanprakash Vivek

जिस तिनके को लोगों ने बेकार कहा था
चिड़िया ने उसको अपना संसार कहा था

बाँट गया था अपने हिस्से की जो रोटी
भूखे लोगों ने उसको अवतार कहा था

मिटने की हद तक जलते थे दीप हमारे
इसीलिए हमने उनको खुद्दार कहा था

बहुत बड़ी थी तेरी धन-दौलत की दुनिया
हमने उसको चाँदी की दीवार कहा था

दोस्त अचानक जिस दिन मेरे घर आये थे
मैंने उस दिन को अपना त्योहार कहा था

इसीलिए कुछ सूरज भी नाराज़ है तुझसे
धूप को तूने फटा हुआ अख़बार कहा था

जंग हुई तो पीठ दिखाकर भाग गया वो
लोगों ने जिसको अपना सरदार कहा था

- ज्ञानप्रकाश विवेक

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