मेरा भी तो मन करता है मैं भी पढ़ने जाऊँ अच्छे कपड़े पहन पीठ पर बस्ता भी लटकाऊँ क्यों अम्मा औरों के घर झाडू-पोंछा करती है बर्तन मलती, कपड़े धोती पानी भी भरती है
अम्मा कहती रोज ‘बीनकर कूड़ा-कचरा लाओ' लेकिन मेरा मन कहता है ‘अम्मा मुझे पढ़ाओ'
कल्लन कल बोला बच्चू ! मत देखो ऐसे सपने दूर बहुत है चाँद हाथ हैं छोटे-छोटे अपने
लेकिन मैंने सुना हमारे लिए बहुत कुछ आता हमें नहीं मिलता रस्ते में कोई चट कर जाता
डौली कहती है बच्चों की बहुत किताबें छपती सजी-धजी दूकानों में शीशे के भीतर रहतीं
मिल पातीं यदि हमें किताबें सुन्दर चित्रों वाली फिर तो अपनी भी यूँ ही होती कुछ बात निराली
-डा० जगदीश व्योम
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