रहीम के दोहे--सरलार्थ सहित
'रहिमन' वहां न जाइये, जहां कपट को हेत। हम तो ढारत ढेकुली, सींचत अपनो खेत॥1॥
ऐसी जगह कभी नहीं जाना चाहिए, जहां छल-कपट से कोई अपना मतलब निकालना चाहे । हम तो बड़ी मेहनत से पानी खींचते हैं कुएं से ढकुली द्वारा, और कपटी आदमी बिना मेहनत के ही अपना खेत सींच लेते हैं।
सब कोऊ सबसों करें, राम जुहार सलाम। हित अनहित तब जानिये, जा दिन अटके काम॥2॥
आपस में मिलते हैं तो सभी सबसे राम-राम, दुआ-सलाम हैं पर कौन मित्र है, और कौन शत्रु? इसका पता तो काम पड़ने पर ही चलता है। तभी, जबकि किसीका कोई काम अटक जाता है।
खीरा को सिर काटिके, मलियत लौन लगाय। रहिमन' करुवे मुखन की, चहिए यही सजाय॥3॥
चलन है कि खीरे का ऊपरी सिरा काट कर उस पर नमक मल दिया जाता है। कड़ुवे वचन बोलनेवाले की यही सजा है।
जो 'रहीम' ओछो बढ़े, तो अति ही इतराज। प्यादे से फरजी भयो, टेढ़ो-टेड़ो जाय॥4॥
कोई छोटा या ओछा आदमी, अगर तरक्की कर लेता है, तो मारे घमंड के बुरी तरह इतराता फिरता है। जैसे शतरंज के खेल में प्यादा जब फ़रजी यानी वज़ीर बन जाता है, तो वह टेढ़ी चाल चलने लगता है।
'रहिमन 'नीचन संग बसि, लगत कलंक न काहि। दूध कलारिन हाथ लखि, सब समुर्भाह मद ताहि॥5॥
नीच लोगों का साथ करने से भला कौन कलंकित नहीं होता है। कलारिन (शराब बेचने वाली) के हाथ में यदि दूध भी हो, तब भी लोग उसे शराब ही समझते हैं।
कौन बड़ाई जलधि मिलि, गंग नाम भो धीम। केहि की प्रभुता नहिं घटी पर-घर गये 'रहीम'॥6॥
गंगा की कितनी बड़ी महिमा है, पर समुद्र में पैठ जाने पर उसकी भी महिमा घट जाती है। घट क्या जाती है, उसका नाम भी नहीं रह जाता। सो, दूसरे के घर, स्वार्थ लेकर जाने से, कौन ऐसा है, जिसकी प्रभुता या बड़प्पन न घट गया हो?
खरच बढ्यो उद्यम घट्यो, नृपति निठुर मन कीन। कहु 'रहीम' कैसे जिए, थोरे जल की मीन॥7॥
राजा भी निठुर बन गया, जबकि खर्च बेहद बढ़ गया और उद्यम में कमी आ गयी। ऐसी दशा में जीना दूभर हो जाता है, जैसे जरा से जल में मछली का जीना।
जैसी जाकी बुद्धि है, तैसी कहै बनाय। ताको बुरो न मानिये, लेन कहां सू जाय॥8॥
जिसकी जैसी जितनी बुद्धि होती है, वह वैसा ही बन जाता है, या बना-त्रना कर वैसी ही बात करता है। उसकी बात का इसलिए बुरा नहीं मानना चाहिए। कहां से वह सम्यक् बुद्धि लेने जाये?
जिहि अंचल दीपक बुर्यो, हन्यो सो ताही गात। 'रहिमन' असमय के परे, मित्र सत्रु ह्वै जात॥9॥
साड़ी के जिस अंचल से दीपक को छिपाकर एक स्त्री पवन से उसकी रक्षा करती है, दीपक उसी अंचल को जला डालता है। बुरे दिन आते हैं, तो मित्र भी शत्रु हो जाता है।
'रहिमन' असुवा नयन ढरि, जिय दुख प्रकट करेइ। जाहि निकारो गेह तें, कस न भेद कहि बेइ॥10॥
आँसू आँखों में ढुलक कर अन्तर की व्यथा प्रकट कर देते हैं। घर से जिसे निकाल बाहर कर दिया, वह घर का भेद दूसरों से क्यों न कह देगा? |