हिंदी चिरकाल से ऐसी भाषा रही है जिसने मात्र विदेशी होने के कारण किसी शब्द का बहिष्कार नहीं किया। - राजेंद्रप्रसाद।
मैं हार गया हूं (काव्य)    Print this  
Author:भगवतीचरण वर्मा

निःसीम नापने चले, मुबारक हो तुम को;
पर दोस्त नाप लो तुम पहले अपनी सीमा।
ऐसा कोई उल्लास आज तक नहीं दिखा,
जो पड़ न गया हो यहां थकावट से धीमा।
अक्षय हो ऐसी आयु किसी को कहां मिली?
अव्यय हो ऐसी सांस किसी ने कब पाई?
मैं हार गया हूं खोज-खोजकर वह समर्थ,
जो नाप सका हो अपने दिल की गहराई।
आवाज नापने वाले, तुम सच-सच कह दो,
क्या नाप सके हो तुम धरती की मौन व्यथा?
जो हरित शस्य, निर्मल जल से भी मिट न सकी,
वह भूख-प्यास की लिखी रक्त से करुणा कथा।
ऐसी कब कोई चाह आह जो बन न गई?
ऐसा प्रकाश है कहां तिमिर में खो न गया?
मैं हार गया हूं खोज-खोजकर वह चेतन,
जो चलते-चलते बीच राह में सो न गया।
है ज्ञान समर्थ, महान--नहीं इनकार मुझे,
कल्पना-पंख पर लक्ष्यहीन लड़ने वाले।
पर देखो, मस्तक पर अभाव, असफलता के
हैं घिरे हुए दुर्भेद्य मेघ काले-वाले।
है प्रेम सत्य, भावना सत्य, अस्तित्व सत्य;
पर तुम में है भय, शंका का अविवेक भरा।
तुम अन्तरिक्ष की सुन्दरता पर मुग्ध-विसुध
तुम ने कुरूप कर डाली है रसवती धरा।

- भगवतीचरण वर्मा

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