हिंदी चिरकाल से ऐसी भाषा रही है जिसने मात्र विदेशी होने के कारण किसी शब्द का बहिष्कार नहीं किया। - राजेंद्रप्रसाद।
कचरा लेखन | व्यंग्य (विविध)    Print this  
Author:डॉ सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त

“लेखक महोदय! आपके अनुभव और पहुँच के चलते इस बार विश्व पुस्तक मेले में आपकी बड़ी धूम रही। जितनी बार साँसें नहीं लीं उतनी बार तो आपने पुस्तकों का लोकार्पण कर दिया। जहाँ देखिए वहाँ आप ही आप छाए हुए थे। मधुमक्खी के छत्ते की तरह फोटों खिंचवाने की लेखकों में बड़ी चुल मची थी। पता ही नहीं चल रहा था कि लेखक कौन है और उसके रिश्तेदार कौन हैं? एक सप्ताह-दस दिन गुजर जाने के बाद लेखक खुद को उन फोटो में ढूँढ़ने में गच्चा खा जाएगा। यह सब छोड़िए। यह बताइए इतनी सारी पुस्तकें घर ले आए हैं, इनका क्या करेंगे?” – मैंने पूछा।

पहुँचे हुए लेखक थे। सो उन्होंने एक लंबी साँस छोड़ते हुए कहा– “पिछली बार की तुलना में इस बार इतनी किताबें मिली हैं कि घर में उन्हें रखने भर की जगह नहीं है। इसलिए किताबें बरामदे में कूड़े की तरह रख डाली हैं। सूखे कूड़े की तरह सूखी किताबें, गीले कूड़े की तरह गीली किताबें अलग करने का समय नहीं मिला। कोई बात नहीं है। इस बार मैंने एक बढ़िया उपाय ढूँढ़ निकाला है।“

“उपाय? कैसा उपाय?” मैंने आश्चर्य से पूछा।

“उपाय बता तो देता। डर है कहीं तुम किसी को बता न दो। पहले मैं इस उपाय का कॉपीराइट करवाऊँगा। फिर किसी को बताऊँगा।” लेखक ने संदेह की नजर से मेरी ओर देखा।

“आपको मुझ पर इतना भी विश्वास नहीं है! मैंने कितनी सारी आपकी रचनाओं का टंकण किया है। चाहता तो उसमें कुछ इधर-उधर कर उसे अपनी रचना बना सकता था लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया। कम से कम इतना तो विश्वास कीजिए।” – मैंने गिड़गिड़ाते हुए कहा।

“कॉपी कर भी लेते तो क्या कर लेते। यहाँ लोग कंटेंट नहीं नाम देखकर किताबें खरीदते हैं। तुम्हारे जैसों की कोई किताब अपने पास रखकर अपनी भद्द थोड़े न पिटवायाएगा।” लेखक ने चिढ़ाते हुए कहा।

“बात तो आपकी बिल्कुल सही है। यह सब छोड़िए। उपाय बताइए। मैं किसी को नहीं बताऊँगा।” – उत्सुकतावश पुनः पूछने लगा।

“ठीक है! ठीक है! बताता हूँ। इस बार मैं इन पुस्तकों की कंपोस्टिंग खाद बनाऊँगा। इसके लिए सबसे पहले एक गड्ढा खोदूँगा। उसमें इन किताबों को फेंक दूँगा। उसी में वे सुखेंगी, गलेंगी और सड़ेंगी। कुछ दिनों के बाद यह एक अच्छी खाद बन जाएगी। तब देखना एकदम ऑर्गानिक साग-सब्जी, फल-फूल उगाऊँगा। इस तरह कंपोस्ट की गई खाद से फालतू लेखकों का कचरा लेखन मिट जाएगा। भू, जल, ध्वनि, वायु प्रदूषण के बाद कचरा लेखन प्रदूषण बड़ा जानलेवा होता जा रहा है। इस तरह के खाद निर्माण से कई पाठकों की जान बचाई जा सकती है।”

“लेकिन इस तरह की खाद से आपके और आपके परिवार की जान को खतरा हो सकता है। उसका क्या?”

“खतरा? कैसा खतरा?”

“इस तरह की खाद से उगाई गई खाद्य सामग्री के सेवन से दस्त, उल्टियाँ और कभी-कभी जान भी जा सकती है। जान गई तो कोई बात नहीं है। पागल बन गए तो दूसरों के जानमाल को खतरा हो सकता है।”

इतना सुनना था कि पहुँचे हुए लेखक मोबाइल निकालकर रद्दीवाले को फोन लगाने लगे।

-डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

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