वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं। - मैथिलीशरण गुप्त।

देवेन्द्र कुमार मिश्रा की कविताएं (काव्य)

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Author: देवेन्द्र कुमार मिश्रा

सूखे पत्ते

सूखते पत्ते को
छोड़ देती है डाली
पत्ता गिरता
है जमीन पर
और हवा के झौंको से
बिखरता है
भटकता है
फिर दो पैर लापरवाही से
कुचलकर
चकनाचूर कर देते हैं
पत्ते को
कमजोर का यही हाल
होता आया है सदा से

#

अयोध्या

मेरा घर लंका नहीं
जो कोई भेदिया ढायेगा
मैं तो अयोध्या हूँ
यहाँ विभीषण का नहीं
मंथरा का डर है
अपनी ही कैकयी से
बचना है
ऐसे में लंका से
खतरनाक हो जाती है अयोध्या
घर का भेदी
तो लंका पर जय दिलाता है
किन्तु अयोध्या वाला तो
बनवास दिला देता है ।

#

 

 

घने वृक्ष की छाँव

घने वृक्ष की छांव में
कुल्हाड़ी लिए बैठा
सोच रहा है लकड़हारा
वृक्ष कांटू तो कुछ
पैसे बनाऊं
और घर चलाऊँ
रोटी जरूरी है आज
और दूर खड़ा
एक सरकारी अधिकारी
सोच रहा है
ये पेड़ काटे
तो केस बनाऊँ
पैसे दे तो
केस रफा-दफा करके
मैं भी कमाऊँ
पैसा न दे सके
तो कटे वृक्ष की
लकड़ियाँ लेकर
सोफा बनवाऊँ ।
दूर खड़ा एक पत्रकार
सोच रहा था कि
पेड़ कटे या बटे तो
मैं खबर बनाऊँ ।


- देवेन्द्र कुमार मिश्रा
  पाटनी कालोनी, भरत नगर, चन्दनगाँव
  छिन्दवाड़ा (म. प्र.)
  ई-मेल: shubham.chhindwara@gmail.com

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