जिस देश को अपनी भाषा और अपने साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता। - देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसाद।

मनोदशा (काव्य)

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Author: कैलाश कल्पित

वे बुनते हैं सन्नाटे को
मुझको बुनता है सन्नाटा
जीवन का व्यापार अजब है
सुख मिलता है, पाकर घाटा।

सेवानिवृति जगी जब जब भी
मन कानन की कली खिली है
जब जब कुछ दे सका किसी को
एक परिमित तृप्ति मिली है।

वैसे देने को था ही क्या
वैभव की भूखी दुनिया को!
किसको है अवकाश सुने जो
पिंजरे में बैठी मुनिया को?

फिर भी इस मुनिया ने जग को
कुछ तो मीठे बोल दिये हैं,
जीवन जीने के प्रतिमानों -
के रहस्य कुछ खोल दिये हैं।

तृप्ति प्राप्ति में नहीं, विसर्जन-
की प्रज्ञा पर सम्भावित है
स्थिति कुछ भी नहीं, ग्राह्यता-
के सरगम पर आधारित है।

- कैलाश कल्पित

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