अजीब क़िस्म का अहसास दे गया मुझको
वो खेल-खेल में बनवास दे गया मुझको
लगा गया मेरे माथे पे रोशनी का तिलक
वो दिन निकलने का विश्वास दे गया मुझको
वो आसमान का शायद डकैत बादल था
जो अश्क लेके मेरे प्यास दे गया मुझको
पराई चिट्ठी किसी की, थमा के हाथों में
कि झूठी-मूठी कोई आस दे गया मुझको
वो प्रीतिभोज की आया था दावतें देने
अजीब बात है उपवास दे गया मुझको
- ज्ञानप्रकाश विवेक
[साभार - ग़ज़लें रंगारंग]