वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं। - मैथिलीशरण गुप्त।

आई दिवाली (काव्य)

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Author: मनोज चौधरी

नच लो झूम लो आई दिवाली
रंगीं समां है रुत मतवाली

आएगी न चान्दनी आज धरा पर
दीवाली की ज्योति से शरमाकर
या डरती है वो पटाखों के धुओं से
कि सुंदरता धूमिल होगी यहाँ आकर
अपनी दीयों की ज्योति निराली
चान्दनी का क्या गम जब ऐसी उजियाली

फुलझड़ियों की कैसी भरमार है
तरह-तरह के पटाखों का अम्बार है
कपड़े खिलोने और गहनों के संग-संग
ढेरों मिठाईयों की आई बाढ़ है
मुँह में है पानी और चेहरे पे लाली
सामने जो आई मिठाई की थाली

बच्चे मगन होके घूम रहे हैं
प्यारे खिलौनों को चूम रहे हैं
नए कपड़ों में पटाखों की धुन पर
नाच रहे हैं और झूम रहे हैं
घरवाला संग नाचे घरवाली
लगता यूँ है सबने जन्नत है पा ली

- मनोज चौधरी
manojchaudharynz@gmail.com

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