शब्द
कुछ शब्द चीख़ते हैं
कुछ कपड़े उतार कर
घुस जाते हैं इतिहास में
कुछ हो जाते हैं ख़ामोश
कविता
कविता दिन-भर थकान जैसी थी
और रात में नींद की तरह
सुबह पूछती हुई :
क्या तुमने खाना खाया रात को?
-मंगलेश डबराल
दो क्षणिकाएँ (काव्य) |
शब्द
कुछ शब्द चीख़ते हैं
कुछ कपड़े उतार कर
घुस जाते हैं इतिहास में
कुछ हो जाते हैं ख़ामोश
कविता
कविता दिन-भर थकान जैसी थी
और रात में नींद की तरह
सुबह पूछती हुई :
क्या तुमने खाना खाया रात को?
-मंगलेश डबराल