जिस देश को अपनी भाषा और अपने साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता। - देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसाद।

पापा-आपा (काव्य)

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Author: अल्हड़ बीकानेरी

छरहरी काया मेरी जाने
कहाँ छूट गई
छाने लगा मुझ पे मोटापा
मेरे राम जी

मारवाड़ी सेठ जैसा,
पेट मेरा फूल गया
कल को पड़े न कहीं छापा
मेरे राम जी

रसभरे बैन कहाँ, घर
में भी चैन कहाँ
खो न बैठूँ किसी दिन आपा
मेरे राम जी

तीनों बहुओं की देखा-देखी
मेरी बुढ़िया भी
मुझको पुकारती है पापा
मेरे राम जी।

- अल्हड़ बीकानेरी

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