एक गहरा दर्द पलता जा रहा है
आदमी का दम निकलता जा रहा है
सज रही है, बस्तियाँ बुलडोजरों से
देश का नक्शा बदलता जा रहा है
हाथ उनके खून में भीगे हुए है
फ़र्ज का दामन फिसलता जा रहा है
बर्फ की इन सिल्लियों को क्या पता है
चेतना का जिस्म गलता जा रहा है
ऐ मेरे हमराज़! बढ़कर रोक ले
रोशनी को, तम निगलना जा रहा है
-अश्वघोष