राह हारी मैं न हारा
थक गये पथ धूल के--
उड़ते हुए रज-कण घनेरे ।
पर न अब तक मिट सके हैं,
वायु में पदचिह्न मेरे।
जो प्रकृति के जन्म ही से ले चुके गति का सहारा।
राह हारी मैं न हारा
स्वप्न-मग्ना रात्रि सोई,
दिवस संध्या के किनारे।
थक गये वन-विहग, मृगतरु--
थके सूरज-चाँद तारे।
पर न अब तक थका मेरे लक्ष्य का ध्रुव ध्येय तारा।
राह हारी मैं न हारा।
- मन्जू लाल द्विवेदी 'शील'