जलाती जिसे क्रोध की आग,
धर्म का उसको बन्धन व्यर्थ
न सीखा जिसने करना त्याग,
प्रेम का वह क्या जाने अर्थ
रहा जिस पर आलस्य सवार,
मनुज वह जीवित मृतक समान।
लोभ ही है जिसका व्यापार,
बराबर उसे मान अपमान॥
-श्रीनाथ सिंह
रत्न-करण (काव्य) |
जलाती जिसे क्रोध की आग,
धर्म का उसको बन्धन व्यर्थ
न सीखा जिसने करना त्याग,
प्रेम का वह क्या जाने अर्थ
रहा जिस पर आलस्य सवार,
मनुज वह जीवित मृतक समान।
लोभ ही है जिसका व्यापार,
बराबर उसे मान अपमान॥
-श्रीनाथ सिंह