जिस देश को अपनी भाषा और अपने साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता। - देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसाद।

फगुनिया दोहे (काव्य)

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Author: डॉ सुशील शर्मा

फागुन में दुनिया रँगी, उर अभिलाषी आज।
जीवन सतरंगी बने, मन अंबर परवाज॥

आम मंजरी महकती, टेसू हँसते लाल।
मन पलाश तन संदली, फागुन धूम धमाल॥

नव पल्लव के संग में, महुआ मादक गंध।
फागुन अंबर पर लिखे, मन के नेह निबंध॥

है वसंत उत्कर्ष पर, बिखरे रंग गुलाल।
लोग फगुनिया गा रहे, ओढ़े लाल रुमाल॥

धूप फगुनिया हो गयी, मन हो उठा अधीर।
देवर बच कर भागते, भाभी मले अबीर॥

धानी चूनर ओढ़ कर ,फागुन गाये गीत।
तन अनंग मन बाँसुरी, कब आएँगे मीत ?

मादक अमराई हुई, टेसू फूल अनंग।
ऋतु वसंत है झूमती, ज्यों पी ली हो भंग॥

फगुनाहट की थाप है, रंगों की बौछार।
अपनेपन से है रँगा, फागुन का त्यौहार॥

-डॉ सुशील शर्मा

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