वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं। - मैथिलीशरण गुप्त।

हिंडोला (काव्य)

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Author: अजय गुप्ता

हिंडोले सा ये जीवन,
घूम रहा है, घुमा रहा है
गोल-गोल

वही धुरी, वही पालने,
नए सवार, हर बार,
नीचे से ऊपर, ऊपर से नीचे,
डराता है गुदगुदाता है

और उतरते हुए
बालमन "एक बार और" की
हठ भी करता है
भूल जाता है
मायाजाल में उलझकर,
न झूला अपना है
न चाल अपनी है

हम सवार हैं,
आनंद लेना है मोल चुकाकर
और फिर चले जाना है
अपने-अपने ठौर

- अजय गुप्ता
  ई-मेल: ajayg.nis@gmail.com

 

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