मैं दुनिया की सब भाषाओं की इज्जत करता हूँ, परन्तु मेरे देश में हिंदी की इज्जत न हो, यह मैं नहीं सह सकता। - विनोबा भावे।
जबसे लिबासे-शब्द मिले (काव्य)  Click to print this content  
Author:दीपशिखा सागर

जबसे लिबासे-शब्द मिले दर्द को मेरे
ग़ज़लें हुईं गमों का हैं त्यौहार क्या करूँ

टेढ़ी निगाह मुझ पे मुक़द्दर की ही रही
उठता नहीं है साँसों का ये भार क्या करूँ

दिल मैंने ये दिया है तो बदले में तुम भी दो
होता नहीं वफ़ा का ये व्यापार क्या करूँ

दुनिया तो मेरी सिर्फ है तुम से ही तुम तलक
तो हसरतों का करके मैं विस्तार क्या करूँ

सदियों ने ज़ुल्म ढाए मगर आह की नहीं
लम्हों से आज करके मैं तकरार क्या करूँ

सुनते रहे हैं इश्क़ तो दरिया है आग का
दिल फिर भी डूबने को है तैयार क्या करूँ

तुम जो नहीं तो ज़िस्म ये बेजान है 'शिखा'
साँसें भी लग रहीं हैं गुनहगार क्या करूँ

- दीपशिखा सागर
[ ग़ज़ल-गंगा, संपादन- चेतन दुबे 'अनिल', अनुसंधान प्रकाशन]

 

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