भाषा का निर्माण सेक्रेटरियट में नहीं होता, भाषा गढ़ी जाती है जनता की जिह्वा पर। - रामवृक्ष बेनीपुरी।
विवर्त (काव्य)  Click to print this content  
Author: गोलोक बिहारी राय

मुझे सोने से पहले, फिर एक बार उठ खड़ा होना है।
न हूँगा झंझावात, न उठ खड़ा हूँगा तूफ़ान बन के।
परिस्थितियों के विवर्त में, बन पड़ूँगा रूद्र सा।
मुझे सोने से पहले, फिर एक बार उठ खड़ा होना है ।।१।।

हार कर मै सोया हूँ, यह जानता है सब कोई।
पर थका-मादा बैठा हूँ, यह भी मुझे मंजूर नहीं।
अभी नहीं मेरी मुद्रा, गरुण पुराण की कथा सुनूँ।
लक्ष्मण जैसी मूर्छा हो, या चिर निद्रा हो आने वाली।
करुणा का वन अति भयावह, शान्ति की ठंडी सही न जाती।
बन विभत्स मैं कूद पड़ूँगा, विपल्व की मझधार में ।
मुझे सोने से पहले, फिर एक बार उठ खड़ा होना है ।।२।।

हर कीमत पर शान्ति चाहिए, पर युद्ध के व्यापार से ।
तभी रक्षित होगी करुणा, विश्व के व्यापार में ।
दया धर्म तब पल्लवित होगा, जगत को आर्य बनायेंगे ।
हर मानव में तब भाव जगेगा, सर्वपंथ सदभाव में ।
सजधज श्रृंगार खडी होगी, जीवन दर्शन के निर्माण में ।
कुसुमित होगा नव जीवन दर्शन, संतति मधुमास मनायेगी।
मुझे सोने से पहले, फिर एक बार उठ खड़ा होना ।। 3 ।।

- गोलोक बिहारी राय
golokrai.gbr@gmail.com

 

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