धूल और धन में जब समता, जीवमात्र से है जब ममता । तब शोक मोह कैसा क्या रे, यह माया की छायाभर है । तुझे फिर किसका क्या डर है ?
काया यह छाया-सी नश्वर, सहज तत्व ही सत्, शिव, सुन्दर । फिर बेध सके जो तुझको, वह किसका ऐसा शर है? तुझे फिर किसका क्या डर है ?
एकाकी ही है यह जीवन, पथ भी तो है कितना निर्जन ! शंका फिर कैसी रे, मन में, जब बना शून्य में घर है? तुझे फिर किसका क्या डर है?
- भगवद्दत ‘शिशु'
[भारत-दर्शन का प्रयास है कि ऐसी उत्कृष्ट रचनाएं प्रकाशित की जाएँ जो अभी तक अंतरजाल पर उपलब्ध नहीं हैं। इसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए भगवद्दत ‘शिशु' की रचनाएं आपको भेंट। संपादक, भारत-दर्शन २७/१२/२०१७]
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