तुम्हें याद है ? नाम लिखा था तुमने मेरा नदी किनारे, एक साँझ अपनी उँगली से भीगे हुए रेत के ऊपर : जिसको थोड़ी देर बाद ही मिटा दिया लहरों ने आकर, देख जिसे, जाने क्यों उस क्षण, भर आये यों नयन तुम्हारे ?
इतनी क्यों गमगीन हुई तुम ? जिसे नष्ट कर गई हिलोरें, वह तो क्षणिक : किन्तु जिसका प्रतिरूप लिखा था मेरे मन पर, नहीं सहज वह पायेगा मर, काल - तरंगों से टकरा कर। फिर जाने क्या सोच तुम्हारी मुस्काई नयनों की कोरें ?
सच, उस सुख की सुधियों को हो, रूप दे रहा हैं कविता का : वह भीगी मुसकान, नेह भीगा विश्वास तुम्हारा मुझ पर, करता रहा सहज प्रेरित, मैं तब से लिखता रहा निरन्तर : अब मुसकायें नयन तुम्हारे, भय न करें वे नश्वरता का !
मेरा नाम, तुम्हारी छाया-विश्वासों की जीत हमारी ! आज समय की नदी किनारे, हार रहीं लो, लहर बिचारी !
- यतेन्द्र कुमार [ छाया के स्वर, आत्माराम एंड संस, १९६०] |