डरे हुए लोग
डरे हुए लोग हर रोज जीते हैं मर-मर के । कोशिश करते है हर रोज जीतने की खुद से लड़-लड़ 2 के। इस प्रक्रिया में खुद को छलते हैं हर रोज- बहुरुपिया बन-बन के। मन की आह बन के ताप हर रोज निकलती है छन-छन के। इक डर से उबरे नहीं दूसरा घेर लेता है मन में उठे हिलोर थम-थम के। इक रोज बादल आए, बिजली चमकी बारिश हुई, धुल गया डर जल गया ताप मुक्ति का एहसास मन मयूर मगन हुआ हँस-हँस के।
- संतोष कुमार “गौतम”
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विजेता
मैं विजेता हूँ आत्म-विजेता/स्व-विजेता मैं अंगूर न मिलने पर अंगूर को खट्टा नहीं कहता और न दोष देता हूँ उंचाई, पेड़, ढेले या किसी और को, न खुद को, न हार मानता हूँ न जिद करता हूँ, मैं प्रेम करता हूँ यकीन करता हूँ और पा लेता हूँ, मै विजेता हूँ आत्म-विजेता/स्व-विजेता।
- संतोष कुमार “गौतम”
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चुनौती
नदी के तट पर बैठकर देखने से अच्छा है कि नदी में कूद जाऊं।
कूदूंगा तो दो चीजे होंगी- या तो डूब जाऊंगा या पार पाऊंगा, मुझे तैरने आता है इसलिए डूबने का कोई चांस नहीं, अब मसला यह है कि कितनी जल्दी मैं नदी की तेज धार व भवंर के मझधार से पार पा लेता हूँ।
यकीनन मुझमें तैरने का माद्दा है और नदी की तेज धार व भवंर की मझधार से खेलते हुए उस पार हूँ और चीजें- मुझे साफ़-साफ़ दिखाई दे रही हैं। फिर से नदी मुस्कराती हुई मुझे आमंत्रित कर रही है और मैंने सहर्ष स्वीकार कर लिया है।
- संतोष कुमार “गौतम”
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