दिल्ली में सावन
दिल्ली में सावन गाने वालो, मेघ मल्हार की टेक लगाने वालों, गाँवो को स्वर्ग बताने वालों, तुमने सावन देखा कब है ?
तुम्हारे वातानकूलित घर बरसात सोखते सीवर महकते रसोइघर दहकते बिस्तर तुम्हारे पास कंकरीट से बने घर है तुम्हारे लिए सावन एक महीना भर है।
दिल्ली से दूर विभीषिका बनी नदियां, डूबे हुए गांव ढहते हुए मकान, बन्द स्कूल, सर्पदंश झेलते बच्चे, गीले चूल्हे, गीली लकड़ियां, पेट में जलती आग, ये भी सावन का महीना है, कितनो को ऐसे ही जीना है।
हर मौसम उनका सावन है जिनके जेब में गांधी है, वर्ना जीवन भरे जेठ की लू भरी आंधी है।
एक सड़क मेरे गांव आई
एक सड़क मेरे गांव आई, और विकास के स्वप्न दे गई, किन्तु बहा कर सारा गांव अपने साथ शहर ले गई। अब गांव में बचे है ठूंठ होते पेड़ बंजर होते खेत खंडहर होते मकान और कुछ झुर्रीदार आदमी।
बहुत समय से गांव में नहीं रोपी गई कोई गर्भनाल, और न हीं मिट्टी में दाबे गए दूध वाले दांत। श्मशान भी सूने है नहीं है कोई रोने वाला, कुत्ते तक को नहीं मिलता निवाला कभी-कभी इस सन्नाटे में भी शोर होता है पर बटवारे का, दुआर और मोहारे का।
कुछ परदेसी लौटते है उसी सड़क से दिल्ली से दुबई तक का पैसा लेकर लेकिन नहीं रोक पाता उन्हें अब गांव, नहीं सुहाती पेड़ की छाँव। फिर लौट जाते है कंकरीट के जंगलो की ओर उसी सड़क से।
मुझे उम्मीद है एक दिन ये सड़क महानगर को बहा कर हमारे गाँव लाएगी शहर और गांव की दूरी मिट जायेगी।
रूपये में गांधी
गाँधी तुम पहले दरिद्र नारायण की आत्मा में बसे थे। गाँधी तुम जब से नगद नारायण की आत्मा बने हो। नारायण दरिद्रो से दूर हो गए और कई नारायण भी दरिद्र हो गए। भाई, भाई के रक्त का प्यासा हो गया, पोंटी चड्डा मौत की नींद सो गया। तुम्हारा अहिंसा का सन्देश कन्हा है? हर हिंसा का कारण रुपया है जिसमे बापू तुम बैठे हो। बाहर निकलो चलो दंतेवाडा तुम्हे बुलाता है, चम्पारण और नौखाली तुम्हे भी तो याद आता है। तुम मौन हो और देश में मुजफरनगर हो जाता है। तुम्हारे वारिसो ने तुम्हे रूपये की आत्मा बना दिया और तुम देश की आत्मा से दूर हो गए। चलो रूपये से बाहर निकलो और बैठो फिर सत्याग्रह पर अपनों के विरुद्ध तभी होगा देश का परिवेश शुद्ध।
- राकेश पांडेय |