रण बीच चौकड़ी भर-भर कर, चेतक बन गया निराला था। राणा प्रताप के घोड़े से, पड़ गया हवा का पाला था। गिरता न कभी चेतक तन पर, राणा प्रताप का कोड़ा था। वह दौड़ रहा अरि-मस्तक पर, या आसमान पर घोड़ा था। जो तनिक हवा से बाग हिली, लेकर सवार उड़ जाता था। राणा की पुतली फिरी नहीं, तब तक चेतक मुड़ जाता था। है यहीं रहा, अब यहां नहीं, वह वहीं रहा था यहां नहीं। थी जगह न कोई जहाँ नहीं किस अरि-मस्तक पर कहाँ नहीं। कौशल दिखलाया चालों में, उड़ गया भयानक भालों में। निर्भीक गया वह ढालों में, सरपट दौड़ा करबालों में। बढ़ते नद सा वह लहर गया, वह गया गया फिर ठहर गया। विकराल वज्रमय बादल सा अरि की सेना पर घहर गया। भाला गिर गया, गिरा निशंग, हय टापों से खन गया अंग। बैरी समाज रह गया दंग, घोड़े का ऐसा देख रंग। - श्याम नारायण पाण्डेय |