भाषा का निर्माण सेक्रेटरियट में नहीं होता, भाषा गढ़ी जाती है जनता की जिह्वा पर। - रामवृक्ष बेनीपुरी।
छलका दर्द  (काव्य)  Click to print this content  
Author:जयशंकर प्रसाद द्विवेदी

कहीं मान मिला,अपमान मिला
सब कुछ सहते चले गए ।
सम्मान की भूख ब-दस्तूर है,
सिस्टम से लड़ते चले गए ।

हर कोई रूठा, छूटा पीछे,
भूखा था जो पैसों का ।
जख्म का मरहम पाने को,
हम दूर होते चले गए ।

मन की ख्वाहिश दफन हुई
कर्ज का बोझ बढ़ा इतना ।
फर्ज़ पड़े हैं जस के तस,
हम अपनो से ही छले गए ।

साँसो का हक किसको दूँ मैं,
किसे बताऊँ किसका हूँ मैं ।
अपने ही बिछाये जालों मे
खुद ही फँसते चले गए ।

कौन है अपना कौन पराया
सब पे है माया का साया ।
किस-किस दलदल की बात करूँ
पत्थर मे धंसते चले गए ।

श्याह अंधेरा हर कोने मे
कहाँ दर्द है अब रोने मे ।
रीते दिल चाह है रीति,
सब हँस कर देखो चले गए ।

अपनी समझ बताऊँ किसको,
अपना दर्द सुनाऊँ किसको।
मुझसे ज्यादा दुखी सभी हैं
यह कहते सारे चले गए ।

शब्द हुए गुमनाम हैं जब से,
नज़्म बनी बेनाम हैं तबसे ।
जब से गमों मे गुमसुम हूँ मैं,
गूंगे भी बककर चले गए ।

- जयशंकर प्रसाद द्विवेदी
dwivedijp@outlook.com

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