रंगो के त्यौहार में तुमने क्यों पिचकारी उठाई है? लाल रंग ने कितने लालों को मौत की नींद सुलाई है। टूट गयी लाल चूड़ियाँ, लाली होंठो से छूट गयी। मंगलसूत्र के कितने धागों की ये माला टूट गयी। होली तो जल गयी अकेली, तुम क्यों संग संग जलते हो। होली के बलिदान को तुम, कीचड में क्यों मलते हो? मदिरा पीकर भांग घोटकर कैसा तांडव करते हो? होलिका के बलिदान को बेशर्मी से छलते हो। हर साल हुड़दंग हुआ करता है, नहीं त्यौहार रहा अब ये। कृष्ण राधा की लीला को भी, देश के वासी भूल गए। दिलों का नहीं मेल भी होता, ना बच्चों का खेल रहा। इस खून की होली को है, देखो मानव झेल रहा। माता बहने कन्या गोरी, नहीं रंग में होती है। अब होली के दिन को देखो, चुपके चुपके रोती हैं। गाँव गाँव और शहर शहर में, अजब ढोंग ये होता है, कहने को तो होली होती, पर रंग लहू का चढ़ता है। खेल सको तो ऐसे खेलो, अबके तुम ऐसी होली। हर दिल में हो प्यार का सागर, हर कोई हो हमजोली। रंग प्यार के खूब चढ़ाओ, खूब चलाओ पिचकारी, और भिगो दो बस प्यार में, तुम अब ये दुनिया सारी।
- राहुल देव |