क्या कहें ज़िंदगी का फ़साना मियाँ कब हुआ है किसी का ज़माना मियाँ
रोज़ है इम्तिहाँ आदमी के लिए ये सुब्ह-शाम का आना-जाना मियाँ
दर्द जो दोस्तों से मिला है हमें उसको मुश्किल बहुत है भुलाना मियाँ
एक मुद्दत से मेरी ज़ुबा बंद है क्या ज़रूरी वजह भी बताना मियाँ
लौटकर क्यों परिंदे इधर आएँगे जब रहा ही नहीं आशियाना मियाँ
हमको तक़दीर लेकर गई जिस जगह हमने माना वहीं आब-दाना मियाँ
बात जब हद से आगे गुज़र जाती है काम आता न कोई बहाना मियाँ
आज बेशक यह सूखा हुआ पेड़ है था परिंदों का वर्षों ठिकाना मियाँ
आदमी जिनकी नज़रों में कुछ भी नहीं ऐसे लोगों से क्या दोस्ताना मियाँ
डॉ. शम्भुनाथ तिवारी एसोशिएट प्रोफेसर हिंदी विभाग, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, अलीगढ़(भारत) ई-मेल: sn.tiwari09@gmail.com
|