थकी-हारी, मनमारी, सरकारी राज भाषा है, बड़ी दीन, पराधीन बिचारी स्वराज भाषा है । किसी के इंगितों पर डोलती यह ताज भाषा है, जिस तरह चाहो, करो, हिन्दी तुम्हारी राजभाषा है ।
अभ्यास है इसके अधर को सीने अश्रु पीने का, अन्यायों को सहने, घुट-घुटके मरने-जीने का । असहाय है ऐसी कि इसकी संतान ही नामर्द है, कोई नहीं पहिचानता कि दिल में कैसा दर्द है ।
जो भी आया कर गया है साथ इसके दिल्लगी, अवश जोड़े हाथ सबकी करती रही है बंदगी । यह भी कैसी माँ कि इसके बेटे इसे भूलते, सुनीति को तज सुरुचि की ही गोद में वे झूलते ।
इस पाप का, संताप का हे दैव, अब तो अंत हो; निष्प्राण इसकी संतति फिर एक बार जीवंत हो । जागें, बढ़े आगे कि झुकता सामने जहाँ मिले; सोये हुए सिंह-सुतों से पुन: उनकी माँ मिले ।
हों भारती की अर्चना में भारतीय बोलियाँ, भरती जाए ज्ञान से विज्ञान से ये झोलियाँ । हो एक देश, एक प्राण, एक भाव आह्लाद हो, निखिल विश्व में गूंजता जनभारती का नाद हो !
- डॉ० इंद्रराज बैद 'अधीर' |