भाषा का निर्माण सेक्रेटरियट में नहीं होता, भाषा गढ़ी जाती है जनता की जिह्वा पर। - रामवृक्ष बेनीपुरी।
छाया के नहीं मिलते... (काव्य)  Click to print this content  
Author:ज़फ़रुद्दीन ज़फ़र

छाया के नहीं मिलते दो पल भी आजकल,
डरने लगे हैं तपिश से बादल भी आजकल।

रोता है अगर दिल तो अपनी दहलीज़ तक,
आंखों से नहीं बहते काजल भी आजकल।

तुम कांटे जिधर चुभें उन राहों को छोड़ दो,
इतना तो जानते हैं ये पागल भी आजकल।

इस उम्मीद से कि कभी वो वापस आ जाए,
मैं घर में नहीं लगाता सांकल भी आजकल।

ये ऐसा नहीं कि मंहगा है पेट्रोल डीजल ही,
सस्ते तो नहीं है दाल चावल भी आजकल।

लोगों के कारनामों से क्या से क्या हो गया,
साफ़ नहीं रह गया गंगाजल भी आजकल।

सत्ताधीश ही नहीं लोगों के दर्द से बे-खबर,
सो गए हैं तमाम विपक्षी दल भी आजकल।

ज़िन्दगी ने रख दिए हैं इतने कठिन सवाल,
दौलत बिना नहीं उनके हल भी आजकल।  

ज़फ़र मुश्किल है पहचानना अपना-पराया,
वफ़ा के सांचे में क़ैद है छल भी आजकल।

-ज़फ़रुद्दीन ज़फ़र, दिल्ली, भारत
 ई-मेल : zzafar08@gmail.com

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