मिट्टी के ढेर पर ठीकरी-ठीकरी हंडिया आ बिखरी।
मिट्टी के ढेर ने पूछा--क्यों?
हंडिया बोली-आश्रय लेने घर लौट आई हूँ। वहाँ अब मेरी आवश्यकता नहीं रहीं।
‘आओ, आओ!’--मिट्टी का ढेर बोला—'सभ्यता की तरह इस घर के द्वार खुल कर बन्द नहीं होते; निकालना नहीं जानते। ये द्वार सदा खुले हैं। आओ।'
...और ठीकरियाँ उस ढेर में लुक-छिप गई।
-श्यामू सन्यासी
(1938) |