भाषा का निर्माण सेक्रेटरियट में नहीं होता, भाषा गढ़ी जाती है जनता की जिह्वा पर। - रामवृक्ष बेनीपुरी।
जीत में यकीन कर (काव्य)  Click to print this content  
Author:शंकर शैलेन्द्र

तू ज़िन्दा है तो ज़िन्दगी की जीत में यकीन कर
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर!

ये ग़म के और चार दिन, सितम के और चार दिन
ये दिन भी जाएँगे गुज़र, गुज़र गए हज़ार दिन
सुबह औ' शाम के रँगे हुए गगन को चूम कर
तू सुन ज़मीन गा रही है कब से झूम-झूमकर
तू आ मेरा सिंगार कर तू आ मुझे हसीन कर!

हमारे कारवां का मंज़िलों को इन्तज़ार है
यह आंधियों की, बिजलियों की, पीठ पर सवार है
तू आ क़दम मिला के चल, चलेंगे एक साथ हम
मुसीबतों के सर कुचल, बढ़ेंगे एक साथ हम
कभी तो होगी इस चमन पर बहार की नज़र!

टिके न टिक सकेंगे भूख रोग के स्वराज ये
ज़मीं के पेट में पली अगन, पले हैं ज़लज़ले
बुरी है आग पेट की, बुरे हैं दिल के दाग़ ये
न दब सकेंगे एक दिन बनेंगे इन्क़लाब ये
गिरेंगे जुल्म के महल, बनेंगे फिर नवीन घर!

- शंकर शैलेन्द्र

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