जिस देश को अपनी भाषा और अपने साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता। - देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसाद।
प्रणाम | पूज्य बापू को श्रद्धांजलि (काव्य)  Click to print this content  
Author:महादेवी वर्मा

हे धरा के अमर सुत! तुमको अशेष प्रणाम !
जीवन के अजस्र प्रणाम !
मानव के अनंत प्रणाम !

दो नयन तेरे, धरा के अखिल स्वप्नों के चितेरे,
तरल तारक की अमा में बन रहे शत-शत सवेरे,
पलक के युग शुक्ति-सम्पुट मुक्ति-मुक्ता से भरे ये,
सजल चितवन में अजर आदर्श के अंकुर हरे ये,
विश्व जीवन के मुकुर दो तिल हुए अभिराम!
चल-क्षण के विराम! प्रणाम!

वह प्रलय उद्दाम के हित अमिट बेला एक वाणी,
वर्णमाला मनुज के अधिकार की, भू की कहानी,
साधना-अक्षर, अचल विश्वास ध्वनि-संचार जिसका,
मुक्त मानवता हुई है अर्थ का संसार जिसका,
जागरण का शंख-स्वन, वह स्नेह-वंशी-ग्राम!
स्वर-छांदस् विशेष! प्रणाम!

साँस का यह तंतु है कल्याण का नि:शेष लेखा,
घेरती है सत्य के शतरूप सीधी एक रेखा,
नापते निश्वास बढ़-बढ़ लक्ष्य है अब दूर जितना,
तोलते हैं श्वास चिर संकल्प का पाथेय कितना?
साध कण-कण की संभाले कंप एक अकाम!
नित साकार श्रेय! प्रणाम!

कर युगल, बिखरे क्षणों की एकता के पाश जैसे,
हार के हित अर्गला, तप-त्याग के अधिवास जैसे,
मृत्तिका के नाल जिन पर खिल उठा अपवर्ग-शतदल,
शक्ति की पवि-लेखनी पर भाव की कृतियां सुकोमल,
दीप-लौ सी उँगलियां तम-भार लेतीं थाम!
नव आलोक लेख! प्रणाम!

स्वर्ग ही के स्वप्न का लघुखंड चिर उज्ज्वल हृदय है,
काव्य करुणा का, धरा की कल्पना ही प्राणमय है,
ज्ञान की शत रश्मियों से विच्छुरित विद्युत-छटा सी,
वेदना जग की यहाँ है स्वाति की क्षणदा घटा सी,
टेक जीवन-राग की उत्कर्ष का चिर याम!
दुख के दिव्य शिल्प! प्रणाम!

युग चरण, दिव औ' धरा की प्रगति पथ में एक कृति है,
न्यास में यति है सृजन की, चाप अनुकूला नियति है,
अंक हैं रज अमरता के संधिपत्रों की कथाएँ,
मुक्त, गति से जय चली, पग से बंधी जग की व्यथाएं,
यह अनंत क्षितिज हुआ इनके लिए विश्राम!
संसृति-सार्थवाह! प्रणाम!

शेष शोणित-बिन्दु, नत भू-भाल पर है दीप्त टीका,
यह शिराएँ शीर्ण, रसमय का रहीं स्पंदन सभी का,
ये सृजन जीवी, वरण से मृत्यु के, कैसे बनी हैं?
चिर सजीव दधीचि! तेरी अस्थियां संजीवनी हैं!
स्नेह की लिपियां, दलित की शक्तियां उद्दाम!
इच्छाबंध मुक्त! प्रणाम!

चीरकर भू-व्योम को, प्राचीर हों तम की शिलाएँ,
अग्निशर-सी ध्वंस की लहरें जला दें पथ-दिशाएँ,
पग रहें सीमा, बनें स्वर रागिनी सूने निलय की,
शपथ धरती की तुझे औ' आन है मानव-हृदय की,
यह विराग हुआ अमर अनुराग का परिणाम!
हे असि-धार पथिक! प्रणाम!

शुभ्र हिम-शतदल-किरीटिनि, किरण कोमल कुंतला जो,
सरित तुंग तरंग मालिनि, मरुत-चंचल अंचला जो,
फेन-उज्ज्वल अतल सागर चरणपीठ जिसे मिला है,
आतपत्र रजत-कनक-नभ चलित रंगों से धुला है,
पा तुझे यह स्वर्ग की धात्री प्रसन्न प्रकाम!
मानववर! असंख्य प्रणाम!

-महादेवी वर्मा

 

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